Friday, April 11, 2014

Vyang 'अच्छे दिन आने वाले हैं '



'अच्छे दिन आने वाले हैं '

चुनाव हो रहे हैं। होते रहे हैं। होते रहेंगे। होना भी चाहिए। चुनाव से ही देश की जनता अपना अधिकार जता पाती है। यही वह दौर है जब उसके अधिकारों की क़द्र होती है। वरना ये बेचारा महंगाई का मारा कुछ जान नहीं पाता। इसी समय मतदाता के सामान्य ज्ञान में वृद्धि भी होती है। वह शान से जान पाता है कि जिसे चुनना है वह कौन है, कैसा है, कहाँ का है। वरना चुने हुए को जानना तो दूर देखना भी बड़ा मुश्किल होता है। 'अधिकार' के साथ ही यह जानना उसका 'कर्त्तव्य' भी है। उम्मीदवार उसके दरवाज़े नहीं भी आये किंतु उसके बारे में सबकुछ जानकारी जुटाने का यही समय सर्वोत्तम होता है। वह चौकीदार है, जादूगर है , मौत का सौदागर है, बच्चा है, पप्पू है, भोन्दु है, शादीशुदा है ,कुआँरा है, छप्पन इंच के सीने वाला है, इतिहास का ज्ञाता है, भूगोल नहीं जानता है, विदेशी है, सांप्रदायिक है, धर्मनिरपेक्ष है आदि आदि आदि।
वोट को जानने का भी सही समय यही होता है। संविधान में भले ही लिखा हो कि वोट गुप्त होता है किंतु ऐसे समय में ही आप जान पाते हैं कि वोट कैसा है ? डाक वाला है, हिन्दू है, मुस्लिम है।  कुर्मी है, जाट है, मराठा है। अलगाववादी है, नक्सली है, मावोवादी है, बाजारवादी है, विकासवादी है। अंबानी या अडानी है। वोट गरीब है या पूंजीपति है। वोट फ़िल्मी है या धार्मिक है। वोट लालच का है या सिद्धांत का है।
कहते हैं चुनाव लोकतंत्र का महा कुम्भ होता है। किंतु चौदह सालों की बजाय हर साल होता है। हर साल क्या हर महीने ही होता है। और  हर महीने भी क्या जी  हर दिन ही होता है। कभी लोकसभा का कभी विधानसभा का। कभी नगर निगम का कभी पंचायत का। न हो तो कभी पार्टी अध्यक्ष का तो कभी नई पार्टी का। हाँ..... जिसे पार्टी बदलना हो उसे भी तो बड़ा सोच समझ कर करना पड़ता है चुनाव। पार्टी के अंदर भी ये चुनाव बड़ा मुश्किल होता है कि बूढ़ा कौन जवान कौन। मुश्किल होता है कि कोप भवन में रहना है या नहीं और यदि रहना है तो कितने दिन। और यह चुनना तो बिलकुल ही आसान नहीं कि चुनाव कहाँ से लढना है।
चुनाव आते ही सभी व्यस्त हो जाते है। सरकार पार्टी चुनाव आयुक्त कलेक्टर प्रधान मंत्री मुख्यमंत्री मंत्री संत्री अधिकारी बाबू चपरासी पत्रकार सिपाही शिक्षक सब, सब, सब। काम कुछ नहीं भी हो तो यही दिखाना होता है कि बहुत काम है। सबके पास एक ही जवाब होता है ' भाई चुनाव में ड्यूटी है बाद में आना'। ऐसे दिनों में ड्यूटी केंसल करवाना टेढी खीर होती है। किंतु कई सूरमा इस खीर को खाने में भी बड़े एक्सपर्ट होते है।
चुनाव का कोई मौसम नहीं होता, सर्दी गर्मी बरसात कभी भी हो जाता है। मुझे लगता है चुनाव का कोई सिद्धांत भी नहीं होता। चुनाव आते ही आचार संहिता लागू होती है लेकिन उसका हश्र देखकर यही लगता है 'अचार' डाले ऐसी संहिता का ? चाहे जितनी शिकायत हो जाए किसी का बाल बांका नहीं होता। आयोग किसी को चमकाता है तो कोई आयोग को ही चमका देता है।
चुनाव में खर्चे का विषय हमेशा से विवाद का विषय रहा है। हर उम्मीदवार तेरी कमीज़ मेरी कमीज़ से सफ़ेद कैसे की तर्ज पर एक दूसरे पर दाग लगाते है किंतु दाग अच्छे है की तर्ज पर भूल भी जाते हैं।
चुनाव मिल बाँट कर लड़ने का मौसम है सो बँटवारा भी खूब होता है रुपये-पैसे का, कम्बल-साडी का, पैसे-पायजेब का, शराब-शबाब का आदि....आदि।
खैर ! जो भी हो। मतदाता को उम्मीदों के खम्भे पर चढ़ाने वाले नेता आजकल खुद ही उस पर चढने लगे है। लगता है 'अच्छे दिन आने वाले हैं '
दिलीप लोकरे
E- 36, Sudaamaa Nagar
hawaa bangalaa road
Indore-452009,M.P.
Mobile No. 9425082194 

Sunday, August 7, 2011

चिड़िया डरती नहीं

क्या कभी सुनी है तुमने
किसी बीज के चटखने की आवाज ?
पौधा कब बाहर आता है
देखा कभी किसी ने ?
मिटटी को खोदे जाने पर
कभी चीत्कार नहीं की उसने
चिड़िया डरती नहीं कभी
सूखे पत्ते के गिरने से
हवाओ के तेज बहने पर
टहनियां नहीं होती परेशान
बादलों से घिर जाने पर
सूरज नहीं खोता अपनी गरमी
सदियों से रहा है यह चक्र
ऐसा ही
कोई नहीं करता शिकायत
किसी से
पर कब तक ?
इस आदमी ने
सब कुछ डाल दिया है
खतरे में
कुछ सजा तो देगी हमें
प्रकृति भी
चाहे वह कितनी ही दयावान क्यों न हो

Monday, March 7, 2011

नारी


बनिस्बत एक खुबसूरत तस्वीर के
हकीकत के वजूद में आ चुकी है नारी
नारी- जिसे कमजोर कह कर ख़ारिज नहीं कर सकते
जो शामिल है
आपके हर अहम् फैसलों में कही न कही
बदल सकती है जो तस्वीर- तकदीर के हर पहलू को
लड़कर पाई है उसने ये हैसियत
कोई अहसान नहीं किया आपने उस पर
वो जी सकती है अपने दम पर
बर्बर ज़माने के हर जुल्म से जूझ कर
पाई इस हैसियत को
आप सलाम करे न करे
वो बढती जाएगी अपनी उस राह पर
जहा मंजिल उसका अंजाम तय नहीं कर सकती
बल्कि वो तय करेगी अपने अंजाम लायक मंजिल
-दिलीप लोकरे
इंदौर

Sunday, April 18, 2010




विजयादुर्गा संस्थान केरी, फोंडा गोवा

Wednesday, March 31, 2010

कुछः चित्र है जो विभिन्न अवसरो पर अलग-अलग स्थानो पर लिये गये है

  1. ग्रामीण भारत में यह दृश्य आम हैं लेकिन हमें देखने कि फुरसत नहीं
प्रकृति के सानिध्य में ऐसे झरने अब देखने को कम ही मिलते हैं .


शहरी बच्चों में से कितनो ने कि बैलगाड़ी कि सवारी


ये मस्ती ,ये लचक मंच के कार्यक्रम में मिलती है क्या



सुबह का कोहरा




आँखों कि चमक





मासूमियत






मक्खी वो भी इतनी बड़ी







छठापूजा








कार्तिक मेला ,ओम्कारेश्वर









बड़ा तालाब भोपाल










स्नेह , मांडव











पशु पालक राजस्थान